बस ! तुम्हें ही पाया है !

 

कि जब-जब गिरते हैं आँसू इन आँखों से,

हर बूँद में आधा हिस्सा तुम्हारा ही पाया है ।

कि जब रहता हूँ दूर तुमसे,

तुम्हें भी साथ-साथ तड़पता पाया है ।

कि जब-जब तरसी हैं ये अँखियाँ तुम्हें देखने को,

तुम्हें भी साथ-साथ तरसता पाया है ।

कि ऐसे शामिल हो गए हैं हम दोनों,

एक दूसरे के जज्बातों में,

कि खुद की शख्सियत को तुममें घुलता पाया है ।

कि ये इश्क हद से गुजर चुका है शायद,

अलग-अलग रहे ही नहीं अब हम,

जब भी देखा बस एक को ही पाया है ।

कवि-राजू रंजन

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